Saturday, November 27, 2010

विराम

जीवन की इस पंक्ति पर

विराम लग गया है

इस ओर या उस ओर

कहीं तो होगा

इस जीवन का अर्थ

जो कुछ चिन्हों की सीमाओ में बंधा

सिर्फ देखता है मुझे

इस अर्थ का विस्तार चाहती हूँ

उस क्षितिज से भी दूर,

आकाश से ऊँचा,

प्रथ्वी से विस्तृत

सम्पूर्णता की कोई चाह नही ,

बस इतना भर,

अपने हिस्से का आकाश,

अपने हिस्से की जमीं,

जो सिर्फ मेरी हो

....... मेरी हो

Saturday, September 25, 2010

गुस्सा

जानते हो,
कभी-कभी
मन करता है कि
बच्चो जैसी लडाई कर लू तुम से,
कुट्टी-पुच्ची वाली
वापस कर दूँ तुम्हारी चीजे
और
मांग लूँ अपनी हर चीज
थोडा सा अपना मुहं फुलाकर
कहूँ तुम से
"नहीं बोलती तुम से
खूब ......
गुस्सा हूँ "
पर जानती हूँ
इस सब के बावजूद भी,
तुम हमेशा की तरह
गंभीर होकर,
मुस्करा कर चले जाओगे
और
छोड़ जाओगे
मुझे
ढेर सारे सवालों-जबाबों के बीच

Sunday, September 5, 2010

द्वीप

"मैं द्वीप होना चाहती हूँ ,
तेरे सागर का ,
जो तेरा होकर भी ,
तेरा नही हैं "

Thursday, August 12, 2010

रिश्ता

इतना ही तो कहा था
जाओ
मुक्त हो तुम
निरासक्त
निर्द्वन्द
निर्भय
और
तुम लौट आये
मेरे ही आँचल में,
पलकों की कोर में ,
बाहों के समुन्दर में
दरसल,
ये दूरिया और नजदिकिया थी
मेरे और तेरे वजूद की
जो कभी सीप होना चाहती थी
तो कभी बूंद

Sunday, July 25, 2010

बेटी की पहली कमाई माँ के लिए

बेटी
जब तुम
कमाना
अपना पैसा
तो मुझे बस खरीद देना
दो रंग
एक हरा
एक नीला
मेरे जीवन के ये रंग सूख गये है
चूल्हे कि कालिख ने मुझ में
भर दिया है कालापन
और
तुम सब के सपनों में रंग भरते भरते
मैं अब
बे-रंग हो चली हूँ
जब तू खरीद देगी मुझे ये रंग
तो मैं भी
धरती कि हरियाली
और
आसमान के नीले विस्तार को
कुछ दिन ही सही
पर
जी तो लूगी

Thursday, July 8, 2010

खालीपन

कुछ भर जाता है वो मुझ में ,

क्या है ये,नही जानती

पर जो भी है वो बूंद -बूंद नही ,

सागर -सागर सा लगता है

Wednesday, May 26, 2010

Sunday, May 23, 2010

महक

एक बार की ही तो,
चाहत थी उस की
मेरे बालो को अंजुरी में भर
सूंघ लेने की
और
बस दो पल ही
उस की लम्बी सांसे
मेरी खुशबू को पीती रही
उस के बाद
जब-जब ये जुल्फे खुली
तो
उस की सांसो की महक से
महकाती रही मुझे

Saturday, May 15, 2010

गणित

कुछ सपने हैं
तेरे और मेरे बीच,
जो कभी हंसाते है
तो कभी रुलाते भी
पर अक्सर ये खामोश कर जाते है तुझ को
तू उलझ जाता है इन
सपनो के गणित में
और
तब दो -दो चार के योग से बाहर हो जाता है
इन सारे सपनो का भूगोल

Sunday, May 9, 2010

पूंजी

हम दो किनारे
अलग -अलग,
पर साथ चलते हुए
मैं अक्सर अपनी सीमा छोड़,
तुम में मिलना चाहती
और तुम
मेरे आने को देखते बस,
ना स्वागत,ना तिरस्कार
मैं कुछ देर ठहरती तुम्हारे पास
अपनी ख़ुशी के लिए
वापस आती तो साथ लाती
ढेर सारा दुःख
जो तुमने चलते वक़्त
मेरी झोली में भर दिये थे
हंसकर, कहते हुए
संभाल कर रखना
इन्हे
ये ही तेरी पूंजी है

Friday, April 23, 2010

अनकहा

अपनी
मौन सांसे
तुम को देना चाहती हूँ,
कि तुम,
इन्हे शब्द देकर,
स्वर देकर,
रंग देकर
दे दो इन्हे
एक नया अर्थ,
एक नयी लय,
एक नया रूप,
और
वो भी
जो इन सब के बीच भी
अनकहा सा रह जाता है

Monday, April 5, 2010

कौन हो तुम

कौन हो तुम
मेरे
भूत, वर्तमान या भविष्य
जो था कल
उस में तो नही हो तुम,
जो चल रहा है,
वहाँ भी नही हो तुम
और
जो कल होगा
वहाँ भी नही होगे तुम
फिर
ये धड़कन
ये साँस
क्यों कहती है मुझसे
कि
तुम हो
पल-पल,हर -पल

Monday, March 29, 2010

नींद

कोरी- सी ये रात,
तेरी नींद के सिरहाने रख आई थी मैं,
जब जागना तो इसे भी,
थोडा-सा उनींदा सा कर देना

Wednesday, March 17, 2010

जस -का -तस

ढलता सूरज,
फीकी कड़क -चाय
और
सूनी सी- छत
अब भी सब कुछ वैसा ही है
पर,
ये सब बिना किसी आहट के,
बस गुजर भर जाते है दिनचर्या में
मन का शोर
इन्हे अनसुना कर
अपनी ही धुन में
धडकता है,
और
वहां
सूरज
चाय
छत
सब कुछ
जस का तस है

Monday, March 8, 2010

औरत :एक प्रेरणा

मैंने,
स्थगित कर रखी है,
कुछ यात्राए
और चोराहे पर खड़े हो
पढ़ रही हूँ रास्तो को
हर आने जाने वाले से
गर्म जोशी से हाथ मिलाती हूँ
अनुभव करती हूँ
उनकी थकान,
और
बस सहला देती हूँ पीठ
कि चलो,
आगे बढ़ो,
फिर किसी और
चोराहे पर मिलूंगी
तुम्हे
उम्मीदों का दामन पकडे

Friday, March 5, 2010

विकल्प

कल कहा था उसने
कि मेरा कोई विकल्प ढूंढ़ लो,
जीना आसान हो जायेगा
सुना और मुस्करायी थी मैं,
क्या इसे पता नही
कि औरत के जीवन के,
विकल्प ही है,
ये
चुप्पी और आंसू

Thursday, March 4, 2010

आना तेरा

"वो जब -जब आया मेरे पास,

जिन्दगी ही लेकर आया

पर मैं उस से जिन्दगी के बदले,

एक मौत ही मांगती रही"

जीवन

सुनो,

तुम क्या लौटा सकते हो,

मुझे

वो सब

जिसे मैंने जिया था,

जाना था,

जैसे,

पल -पल में एक जीवन

Friday, February 19, 2010

वक़्त

वक़्त ने छोड़ दिया था
जिन हाथो का साथ,
आज वक़्त से लड़कर,
उन्हें जिन्दगी भर का
'हम साथ 'बनाया है

सच

दिल का रेशा -रेशा जो कहता है
वो झूठ है
तेरी आँखे और सांसे
जो कहती है
वो भी एक झूठ है
तो चलो ना
अब
वही मान ले
जो सब ने कहा
कि
यही सच है

Tuesday, February 2, 2010

रंग

जो जगहे,
खाली छोड़ दी थी तुमने,
उन्हें कुछ और रंगों से भर रही हूँ मैं
रंग,
तो तुमने ही भरा था
'सुर्ख सफ़ेद'
सफ़ेद
संभावनाओ का रंग,
कि जो भी चाहो वह रंग भरा जा सके
लोग खुश थे मुझे अपने ही रंगों में रंग कर
और मैं
इठला रही थी
अपनी सफेदी पर,
जिसे सिर्फ और सिर्फ तुम्ही ने
सृजा था

Saturday, January 30, 2010

उम्मीद

एक 'उम्मीद'
मैंने आज फिर गमले में लगा दी हैं,
मिटटी
डाली है इस बार
और थोड़ी खाद भी .
अब रोज सीचेगे हम इसे
अपने प्रेम से,
बातो से,
हंसी से,
झगड़ो से,
मनुहार से,
और जब 'उम्मीद' बढ़ेगी,फेलेगी
तो हम भी देखेगे कि
किसी बड़े सपने का
फलना क्या होता है
जो हमारी जिन्दगी में
हर रोज महकता है.

Monday, January 18, 2010

मादा

सिकुड़ जाती हूँ
अक्सर
इस 'साये' में
जो चलता रहता साथ मेरे
हर दम, हर जगह
कभी महसूस करना तुम भी
'ऑरत' के
इस साये को
जो गाहे-बगाहे निरीह बनाता है मुझे
मेरी आत्मा से अलग मेरा शरीर
दबोचता,
मसलता,
कचोटता रहता है
कि
तुम
सिर्फ
'मादा' हो

Friday, January 15, 2010

भवंर

रोज मेरे साथ चलता था,

ये दर्द

मैंने कहा,

दोस्त बन जाओ मेरे,

बस,

रहो मेरे साथ,

चलो मेरे साथ,

जियो मेरे साथ।

पर,

ये दर्द

मेरे वजूद से ज्यादा ताकतवर था,

साथी से स्वामी हो गया,

और अब

मेरे वजूद में एक,

भवंर पैदा

किये रहता है

Thursday, January 14, 2010

मासिक- धर्म

सुनो,

मैं

तुम्हें बताना चाहती हूँ

अपने शरीर की रिसती एक -एक बूंद का दर्द

दर्द,

जो तुम्हारे लिए इतना ही है,

कि जिसे सुन लिया जाये,

एक हाँ, हूँ के साथ

और मैं,

इस बूंद- बूंद बहती नदी को,

जीती हूँ,

दिन -व -दिन,

महीने -दर- महीने

यह एक बूंद,

मुझे जोडती भी है तुम से,

और दूर भी करती है,

मीलों तक

लेकिन,

कभी अगर इस दर्द की भाषा समझ सको,

तो जरुर आना,

इन मीलों की दूरी को तय कर के,

प्यार से सर पर हाथ रखने

दूसरी

तुम प्रेम की एक और नई परिभाषा गढ़ो,
जिसमे ठीक- ठीक बैठा सको मुझे,
कि मैं,
तुम्हारा 'दूसरा' प्रेम हूँ
जिसे तुमने गाहे -बेगाहें स्वीकार किया है
वैसे भी,
इस दूसरे के लिए तुम्हें 'सब कुछ' नया गढ़ना होगा,
क्योंकि,
हमारी सभ्यता ने तो इस दूसरी के लिए कुछ रखा ही नही है
यहाँ सब कुछ 'पहले ' के लिए ही आरक्षित है,
प्यार,
सम्मान,
और
रिश्ता भी
पहले के बाद जो भी,जैसा भी है,
सब 'अनैतिक' है
तो दोस्त,
मत सर- दर्द लो तुम,
और छोड़ दो मुझे,
किसी और का
'पहला' बनने के लिए

Tuesday, January 12, 2010

जाने के बाद

जीवन से ज्यादा,अब

कविता चलती है

जीवन में ,

कभी बनती- सी,तो बिगडती- सी

कभी शब्दों से,कभी आंसुओ से

उडति हवा और बहता पानी भी,

कविता बन जाता है।

जान गयी हूँ ,

तेरे जाने के बाद

अपना अपना हिस्सा

सुनो,

वो जो पल ठहर गये उस दिन,

उन्हें ले जाना तुम,

संभालकर रख लेना ,

अपने इतिहास के लिए ,

मैं तो अपने हिस्से के ले आई थी,

जीने के लिए