Monday, January 18, 2010

मादा

सिकुड़ जाती हूँ
अक्सर
इस 'साये' में
जो चलता रहता साथ मेरे
हर दम, हर जगह
कभी महसूस करना तुम भी
'ऑरत' के
इस साये को
जो गाहे-बगाहे निरीह बनाता है मुझे
मेरी आत्मा से अलग मेरा शरीर
दबोचता,
मसलता,
कचोटता रहता है
कि
तुम
सिर्फ
'मादा' हो

2 comments:

  1. मादा होने के इस एहसास से हमें खुद को ही तो लड़ना होगा. खुद को सिर्फ़ देह समझने से ऊपर उठना होगा.

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  2. mukti ji, kavita 'ilaaj' ki utni baat nhi karti jitni 'marz' ki karti hai

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sabd mere hai pr un pr aap apni ray dekr unhe nya arth v de skte hai..