Wednesday, March 17, 2010

जस -का -तस

ढलता सूरज,
फीकी कड़क -चाय
और
सूनी सी- छत
अब भी सब कुछ वैसा ही है
पर,
ये सब बिना किसी आहट के,
बस गुजर भर जाते है दिनचर्या में
मन का शोर
इन्हे अनसुना कर
अपनी ही धुन में
धडकता है,
और
वहां
सूरज
चाय
छत
सब कुछ
जस का तस है

1 comment:

  1. वाह !!! बहुत ही खूबसूरत कविता. अभी तुमने अपने ब्लॉग को एग्रीगेटर से नहीं जोड़ा ?

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sabd mere hai pr un pr aap apni ray dekr unhe nya arth v de skte hai..