तुम प्रेम की एक और नई परिभाषा गढ़ो,
जिसमे ठीक- ठीक बैठा सको मुझे,
कि मैं,
तुम्हारा 'दूसरा' प्रेम हूँ
जिसे तुमने गाहे -बेगाहें स्वीकार किया है
वैसे भी,
इस दूसरे के लिए तुम्हें 'सब कुछ' नया गढ़ना होगा,
क्योंकि,
हमारी सभ्यता ने तो इस दूसरी के लिए कुछ रखा ही नही है
यहाँ सब कुछ 'पहले ' के लिए ही आरक्षित है,
प्यार,
सम्मान,
और
रिश्ता भी
पहले के बाद जो भी,जैसा भी है,
सब 'अनैतिक' है
तो दोस्त,
मत सर- दर्द लो तुम,
और छोड़ दो मुझे,
किसी और का
'पहला' बनने के लिए
आपकी रचनाएँ पढ़ने के बाद यही कहना चाहूँगा "दर्द का समंदर है आपके अन्दर" साथ ही आशा करता हूँ की ये सिर्फ कल्पना और सिर्फ कल्पना हो - आपकी लेखनी को नमन, शुभ आशीष और ढेर सारी शुभकामनाएं
ReplyDelete