Saturday, November 27, 2010

विराम

जीवन की इस पंक्ति पर

विराम लग गया है

इस ओर या उस ओर

कहीं तो होगा

इस जीवन का अर्थ

जो कुछ चिन्हों की सीमाओ में बंधा

सिर्फ देखता है मुझे

इस अर्थ का विस्तार चाहती हूँ

उस क्षितिज से भी दूर,

आकाश से ऊँचा,

प्रथ्वी से विस्तृत

सम्पूर्णता की कोई चाह नही ,

बस इतना भर,

अपने हिस्से का आकाश,

अपने हिस्से की जमीं,

जो सिर्फ मेरी हो

....... मेरी हो

8 comments:

  1. इस अर्थ का विस्तार चाहती हूँ

    उस क्षितिज से भी दूर,

    आकाश से ऊँचा,

    प्रथ्वी से विस्तृत

    ...... purn , sampoorn - bahut badhiyaa

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  2. बस इतना भर,

    अपने हिस्से का आकाश,

    अपने हिस्से की जमीं,

    जो सिर्फ मेरी हो

    ....... मेरी हो

    बस एक यही तो चाहत होती है।

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  3. सम्पूर्णता की कोई चाह नही ,
    बस इतना भर,
    अपने हिस्से का आकाश,
    अपने हिस्से की जमीं,
    जो सिर्फ मेरी हो
    ....... मेरी हो

    बस वही तो सम्पूर्ण है !
    बहुत सार्थक अभिव्यक्ति !

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  4. विराम के बाद भी जीवन के अर्थ को खोजती ये पंक्तियाँ बड़ी सहजता से खुले आकाश की और हाथ उठाए दिखती हैं .गहन अनुभूति की गहराई से आती आवाज मुखर हो उठी है .बधाई एक अच्छी कविता .

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    सुशील गंगवार
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sabd mere hai pr un pr aap apni ray dekr unhe nya arth v de skte hai..