जीवन की इस पंक्ति पर
विराम लग गया है
इस ओर या उस ओर
कहीं तो होगा
इस जीवन का अर्थ
जो कुछ चिन्हों की सीमाओ में बंधा
सिर्फ देखता है मुझे
इस अर्थ का विस्तार चाहती हूँ
उस क्षितिज से भी दूर,
आकाश से ऊँचा,
प्रथ्वी से विस्तृत
सम्पूर्णता की कोई चाह नही ,
बस इतना भर,
अपने हिस्से का आकाश,
अपने हिस्से की जमीं,
जो सिर्फ मेरी हो
....... मेरी हो
खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeletebhut bhut sukriya sangeeta ji..
ReplyDeleteइस अर्थ का विस्तार चाहती हूँ
ReplyDeleteउस क्षितिज से भी दूर,
आकाश से ऊँचा,
प्रथ्वी से विस्तृत
...... purn , sampoorn - bahut badhiyaa
बस इतना भर,
ReplyDeleteअपने हिस्से का आकाश,
अपने हिस्से की जमीं,
जो सिर्फ मेरी हो
....... मेरी हो
बस एक यही तो चाहत होती है।
सम्पूर्णता की कोई चाह नही ,
ReplyDeleteबस इतना भर,
अपने हिस्से का आकाश,
अपने हिस्से की जमीं,
जो सिर्फ मेरी हो
....... मेरी हो
बस वही तो सम्पूर्ण है !
बहुत सार्थक अभिव्यक्ति !
विराम के बाद भी जीवन के अर्थ को खोजती ये पंक्तियाँ बड़ी सहजता से खुले आकाश की और हाथ उठाए दिखती हैं .गहन अनुभूति की गहराई से आती आवाज मुखर हो उठी है .बधाई एक अच्छी कविता .
ReplyDeletebhut bhut dhnyabad aap sabhi ka...
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ReplyDeleteसुशील गंगवार
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