Saturday, September 25, 2010

गुस्सा

जानते हो,
कभी-कभी
मन करता है कि
बच्चो जैसी लडाई कर लू तुम से,
कुट्टी-पुच्ची वाली
वापस कर दूँ तुम्हारी चीजे
और
मांग लूँ अपनी हर चीज
थोडा सा अपना मुहं फुलाकर
कहूँ तुम से
"नहीं बोलती तुम से
खूब ......
गुस्सा हूँ "
पर जानती हूँ
इस सब के बावजूद भी,
तुम हमेशा की तरह
गंभीर होकर,
मुस्करा कर चले जाओगे
और
छोड़ जाओगे
मुझे
ढेर सारे सवालों-जबाबों के बीच

9 comments:

  1. गहन भाव उभारती ये पंक्तियाँ जिस गाढ़ेपन के के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करती है ,वह सम्पूर्णता में व्याख्यायित होता है .गूढ़ मनः स्थिति का चित्र उकेरती ये कविता अन्दर तक छू देती है.आगे भी आपकी रचनाओं का इंतजार रहेगा .बधाई!शुभकामनाएँ !

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  2. आगे भी आपकी रचनाओं का इंतजार रहेगा ....
    बहुत खुबसूरत पंक्तिया है ........

    पढ़िए और मुस्कुराइए :-
    क्या आप भी थर्मस इस्तेमाल करते है ?

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  3. बहुत खुबसूरत पंक्तिया है|

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  4. जाने दो उसे गंभीर होकर, मुस्कुराकर... अपने गुस्सा होने के अधिकार को कभी मत छोड़ना. यही कुछ चीज़ें हैं, जो रिश्तों में जीवन्तता लाती हैं. भले ही कोई इन्हें बचकानी बातें कहकर हँसी में उड़ाता रहे.

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  5. कच्चे-पक्के शब्दों को मिलाकर घरोंदा बनाया....फिर उसपर सबसे खूबसूरत फूल रख दिए (अंतिम पंक्तियां)शरुआत है तो बेहतर है। शुरूआत हो चुकी है तो मैराथन जीतने की तैयारी में हैं।

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  6. बहुत सहज , सरस अभिव्यक्ति ।
    प्रशंसनीय ।

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  7. गुस्‍सा का मजा तभी आता है जब उसे प्‍यार से परोसा जाए।

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  8. Itna Sab Kuch, Itna Saral :) Bahut Khoob

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sabd mere hai pr un pr aap apni ray dekr unhe nya arth v de skte hai..